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                                     परम पूजनीय 1008 श्री पूरणदासजी महाराज 

क्षत्रिय घाँची  समाज में अनेक विभूतियां पैदा हुई है  ! जिन्होंने अपने समय में समाज का नाम राष्ट्रीय एवं विश्व स्तर पर रोशन किया है  ! इसी कड़ी में राजस्थान के पाली जिले के सिरियारी  गांव में एक साधारण
 किसान के घर पुकारामजी गहलोत  नामक बच्चे ने अवतरण लिया  ! समय पर इनके माता-पिता ने इनकी शादी खैरवा गांव में करवाई ! इनकी पत्नी से इन्हें एक पुत्री का जन्म भी हुआ ! श्री पुकारामजी  गृहस्थी चलाने के लिये घट्टी टंचाई का कार्य किया करते थे और अपनी गृहस्थी निर्विघ्न रूप से चलाते थे  ! बचपन से संत प्रवृति के पुकारामजी का संपर्क रामस्नेही संप्रदाय के संतो से हुआ और इनका मन प्रभु की परम शक्ति की खोज में चला गया  !!
एक बार घट्टी टांचने के लिए ज्योंही पत्थर उठाया तो इसके नीचे चींटियों का झुंड देखा जिनके मुंह में अनाज का दाना था, तो उन्होंने विचार किया कि ईश्वर कीड़े-मकोड़े को  भी खाना देते हैं तो हम तो इंसान है हमें भी देंगे ! तो क्यों न मैं भी घर-गृहस्थी छोड़कर ईश्वर भक्ति करू ? प्रभुपर हमारी जिम्मेदारी भी होगी , जो सबका जीवन निर्वाह कर रहे है ! यह सोचकर आप दिन में ही वापस घर आ गये और अपनी पत्नी से बोले कि "मैं अब साधु बनूंगा , मुझे आज्ञा दो '' पत्नी ने कहा कि मेरे से क्या गलती या भूल हुई जो आप एकदम गृहस्थी जीवन को छोड़कर साधु बनने जा रहे हो ! लेकिन आपने अपने भरे-पूरे गृहस्थीजीवन को महात्मा बुद्ध की तरह छोड़कर सत्य की खोज में निकल पड़े ( यह सच्ची घटना है जो महाराज ने बाद में लेखक को बताई  ) ! आप कई वर्षो तक साधुओं के झुंड में घूमते रहे तथा धार्मिक स्थलों का भ्रमण  करते हुए हर सम्प्रदाय के साधु के साथ रहे ! मेवाड़ के प्रसिद्ध मातृ कृण्डिया तीर्थ पर भी कई वर्षों तक रहे ! वे एक अच्छे गुरु की खोज में थे जो इनको सत्य का मार्ग बता सके ! फकीरी जीवन व्यतीत करते हुए भी इन्होंने न तो कभी पैसों को छुआ और न ही कभी मांग कर खाया ! अपने गले में एक झोली लटकायें रहते थे जिसके दो मुख थे एक तरफ हथोडी और टांकी तो दूसरी तरफ खप्पर रहता था ! आप घट्टी टांचने में माहिर होने की वजह से सभी लोग आप से हिः घट्टी टंचवाना पसंद करते थे ! इधर घाँची समाज सोजत ने नदी किनारें महादेवजी का मंदिर बनवाया जिसमें दो कमरे भी बनवाये तब समाज के अग्रगण्य लोगों ने विचार किया  कि इस रमणीक स्थान पर कोई संत विराजमान हो तो अच्छा हो ! ऐसा विचार करते हुए इन्होंने संत की खोज करना शुरू कर दिया तो इन्हें पता चला कि पाली के रामस्नेही आश्रम में श्री दर्शन रामजी महाराज के साथ पूर्णदासजी महाराज नाम का स्वजातीय संत भी रहते है ! तो समाज बंधुओं ने पाली जाकर दर्शन रामजी महाराज से संत पूर्णदासजी महाराज को अपने साथ आश्रम में भेजने का निवेदन किया ! सोजत आने के बाद पूर्णदासजी महाराज समाज बंधुओं को यही शिक्षा देते रहे कि मैं बड़े-बड़े संतों के साथ रहा हूँ और कई ग्रंथ सुने है ! जिसमें सार की बात यही हैं कि आप स्वयं तप करों, खुद सत्कर्म करों, खुद राम का जाप करों !!
जैन समाज के महान संत श्री मिश्रीमल जी महाराज सोजत के पास विहार करते तो पूर्णदासजी महाराज को मिलने जरुर पधारते और लोगो से कहते थे कि आप इस महान संत को पहचान नहीं पाये हो ! यह जितेन्द्रिय ब्रह्मनिष्ठ संत है जिसने क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, मोह-माया सभी इन्द्रियों पर विजय पा ली है ! किसी प्रकार का लोभ मोह नहीं है !अगर ऐसे संत जैन समाज में होते तो बहुत पूजनीय होते और बहुत लाभ प्राप्त करते !
संत पूर्णदासजी महाराज को हर समाज के लोग मानते थे ! आप भेंट-पूजा, झांडा-फूंका, टोटका-तोटकी से हमेशा दूर रहते थे ! आपको अपने शरीर से बिल्कुल मोह नहीं था आपने कभी शिष्य नहीं बनाया ! आप बोलते थे की हम इस ईश्वरी सत्ता के ही अंश है ! इसी का स्मरण करों और सत्कर्म करों !!